Monday, July 18, 2016

Ethics in Education and changes in our Vaidik history

नैतिकता का स्रोत अध्यात्म है जब तक हमारे पाठ्यक्रमों में अध्यात्म नहीं पढ़ाया जायेगा तब तक नैतिकता ही नहीं सकती है। भारत का जन्म ही अध्यात्म से हुआ है और हमारा वैदिक इतिहास भी अध्यात्म से ही जुड़ा है परन्तु दुःख इस बात का है कि हम अध्यात्म ही भूल गए वह भी केवल छद्म साम्प्रदायिकता के चक्कर में जबकि अध्यात्म का साम्प्रदायिकता से कोई लेना देना नहीं। हमारे ऊपर पाश्चात्य सभ्यता आरोपित की गयी। ....और अब आज स्वेक्षा से लोग उसे गले भी लगा रहे है। पाश्चात्य से जो अच्छाई सीखनी थी वह हमने सीखी ही नहीं वरन बुराईयों को गले लगा ली और बन बन गए जेंटलमैन। अरे हमें वो क्या सभ्यता सिखाएंगे जो खुद हजार साल पहले चोर डकैते थे , कई दिनों तक नहाते नहीं थे, शरीर की दुर्गन्ध छिपाने के लिए परफ्यूम का प्रयोग करते थे। और आज भी शौच के बाद पानी का प्रयोग करके कागज से पोछ कर काम चला लेते है ....अगर वह इतने संपन्न होते और नैतिक होते तो अन्य दूसरे देशों को क्यों लूटते ?
परन्तु दर्भाग्य कि उन अंग्रेजो का चाल चलन सभ्यता हम अंधाधुंध तरीके से अपना रहे है लोगो को अपनी मातृभाषा में बातचीत करने में शर्म आती है। मातृभाषा में ग्रहणशीलता ज्यादा होती है बजाय किसी अन्य भाषा में , विद्यार्थी मातृभाषा में पढ़ने , लिखने , समझने में सक्षम है परन्तु उन्हें जबरदस्ती अंग्र्जी भाषा में पढ़ाई जाती है। जिस बच्चे का लालन पालन उसकी मातृभाषा में हुआ है उसकी प्रारंभिक शिक्षा उसी मातृभाषा में होनी चाहिये बाद में उन्हें अन्य भाषा पढ़ाया जाना चाहिये।
परन्तु दुर्भाग्य ! कि हमारेनीति निर्माताओं ने ऐसी कोई नीतिनहीं बनायीं। और परिणाम कि आज शहर ही नहीं गाँव गाँव में ठूंसी जा रही है अंग्रेजी। अरे भाई जब उन्हें तुम भाषा ही पढ़ाते रहोगे तो उन्हें गणित , विज्ञान, कला , इतिहास , भूगोल इत्यादि विषय कब पढ़ाओगे। और परिणाम यह है कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले छात्र भी विषय ज्ञान में कमजोर होते है क्योंकि उन्होंने तो अंग्रेजी सीखी है विषय ज्ञान नहीं
छद्म ज्ञानिओं ने हमारा इतिहास ही गलत लिख दिया है और हम गलत सलत तथ्य पढ़ते है। हमारा इतिहास अंग्रेजों के प्रभाव में लिखी गयी और हमें तोड़ मरोड़ के पढ़ाया गया और हम अपने महानता को भूल गए। आज वही छद्म ज्ञानी लोग धर्मनिरपेक्षता की बात करते है। जब भी हम अपने वास्तविक इतिहास को याद करने की कोशिश करते है तो हो हल्ला मच जाता है क्योंकि वह एक धर्म विशेष से सम्बंधित है। ...और इस तरह हम अपने आप को भूलते जा रहे है और बौद्धिक स्तर पर गिरते जा रहे है।
गुलामी इस कदर बस गयी है हम लोगों में कि हम लोग नमकहराम भी बन गए। हम पढ़ते तो यहाँ हैं परन्तु अपने ज्ञान का प्रयोग विदेशों में जाकर करते है , सरकार हमारे ऊपर भारतीयों के द्वारा जमा की गयी धन खर्च करती है परन्तु उसका लाभ अमेरिका , ब्रिटेन ,कनाडा , आस्ट्रेलिया आदि देश ले रहे है। और बहाना इस बात का देते है कि भारत में अवसर नहीं है। ....माना कि अवसर नहीं है तो अवसर पैदा करो। देश के लिए कुछ संघर्ष करो। आखिर देश ने तुम्हे इतना कुछ दे दिया तो उसके बदले में तुमने क्या दिया ? बेईमानी और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि महज % चोर जनता बाकी ९५% जनता पर इसकदर हावी है कि चहुंओर निराशा का वातावरण है। लोग अपनी मेधा पर विश्वास करके माँ लक्ष्मी पर ज्यादा विश्वास करते है।

लोग कायर हो गए है क्योंकि उनमें कुछ करने का साहस नहीं , और स्वार्थी इसलिए है क्योंकि वह केवल अपने बारे में सोचते है। लोग महर्षि वेदव्यास जी के कथन को भूल गए कि "परोपकार से अच्छा पुण्य नहीं और परपीड़न से बड़ा पाप नहीं " जो की सभी शास्त्रों और उपनिषदों का सार है। ......और यही चाहते थे अंग्रेज मैकाले। और वही हो रहा है इसलिए अभी भी हम गुलाम है।
....................................................................................................................................................... रवि प्रकाश गुप्ता

Saturday, July 9, 2016

विश्वविद्यालयों से प्राप्त डिग्रियाँ तो रोजगार पाने में मनुष्य को सक्षम बना देती हैं परन्तु मनुष्य के अंदर मानवीय गुणों का विकास नहीं हो पाता है। शिक्षा का मूल उद्देश्य मानवीय गुणों का विकास भी होना चाहिए केवल रोजगार के लिए डिग्री ही नहीं। बिना मानवता के मनुष्य का समग्र विकास उसके लिए अभिशाप बन जायेगा। और यदि सभी के अंदर मानवता और नैतिकता हो तो समाज में न कोई पाप होगा और न कोई दुःख।

Wednesday, March 2, 2016

Right Decisions in Dilemma (धर्मसंकट)

धर्म संकट में कार्यकुशलता



जब हम कोई कार्य निःस्वार्थ भाव से करते है जिसमे समाज का कल्याण होता है तो हमें  बहुत से कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।  कभी कभी  तो  हमें अपने सम्बन्धी , मित्र  आदि लोग ही धर्मसंकट में डाल देते हैं। अधिकांशतः हमें  ऐसे त्वरित निर्णय लेना पड़ता है कि हम समस्त मानस के हित अनहित के बारे में विचार ही नहीं कर पाते हैं।  इसका मतलब यह नहीं होता है कि हम गलत निर्णय ले रहे है, हो सकता है कि किसी अनहोनी, उपद्रव या अवांछनीय कार्य अथवा तत्वों को रोकने के लिए त्वरित ऐसा करना पड़ रहा हो। परन्तु उस निर्णय में समाहित हित अथवा अनहित को भांप लेना भी अपने आप में एक कार्यकुशलता है।  कभी कभी हमसे यह भी नहीं हो पाता है, परन्तु जब कोई अपना व्यक्ति या हम स्वयं कही किसी ऐसी असुविधा का शिकार होते  हैं  जो कि  किसी निर्णय द्वारा उत्तपन्न हुआ हो तब हमें यह ज्ञात होता है की इस फैसले में कुछ खामियां हैं जिससे कुछ लोगो को असुविधा हो रही है या हो सकती है।  परन्तु हम कभी कभी अपने सिद्धांतो में फंस जाते है, जो सिद्धान्ते हमारी उस कदाचित अनुचित फैसलों से सृजित हुई  होती है। फिर हम स्वयं को सिद्धांतवादी मानते हुए उस निर्णय को बदलने में हिचकिचाते हैं। हम फिर यह सोचने लगते हैं कि अब यदि मैं इसे बदलता हूँ तो समाज हमें छद्म सिद्धांतवादी कहेगा, या फिर स्वार्थी कहेगा आदि।  और इस तरह एक गलत निर्णय आगे बढ़ता रहता है।  परन्तु हमारे विचार से ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं करना चाहिए और अपने इस अनुपयुक्त सिद्धांत को बदलना भी चाहिए। अपने उस फैसले को भी बदलना चाहिए जिससे लोगो को भविष्य में और असुविधा न हो।  इस संसार में कुछ भी अटल नहीं है।  प्रकृति भी बदलती है , ग्रह  नक्षत्र तारे सूर्य सभी अपना व्यवहार बदलते है तो भला हम इस संसार में कैसे नहीं बदल सकते हैं। नदियाँ अपना बहाव क्षेत्र बदलती हैं , यहाँ तक कि हमारी भूमि भी गतिमान है।  जहाँ आज हिमालय है वहां कभी समुद्र हुआ करता था और आखिर यही तो संसार का नियम है जिसे हम परिवर्तन कहते हैं।
जब भी कभी परिवर्तन होता है तो समाज उसका विरोध करता है चाहे परिवर्तन सही ही क्यों न हो और यह भी जगत की प्रकृति है। यहाँ पर महात्मा गांधी के  एक वक्तव्य का उल्लेख करना चाहूंगा कि जब भी आप कुछ अच्छा या समाज के हित में परिवर्तन या कार्य  करना चाहेंगे तो आपका विरोध होगा, आपको गाली दिया जायेगा, हो सकता है आपको दंड भी मिले परन्तु यदि आप अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए तो अंत में जीत आपकी होगी और फिर समाज आपका जय जयकार करेगी। अतः हमें गलत निर्णय को त्वरित बदलना चाहिए, चाहे वह निर्णय किसी ने भी लिया हो, इसमें कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।  यह हमारा समाज के प्रति दायित्व भी है।  
यदि बात प्रशासन की हो तो कभी कभी एक संकट यह भी आती है कि  सामान्यतः न्याय और दया भिन्न प्रतीत होते हैं।  परन्तु न्याय और दया में अंतर नहीं है क्यों कि, दंड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से दुखों को प्राप्त न हो।  और यही दया भी है।  जिसने जितना अपराध  किया हो तो उसे उतना ही दंड मिलना चाहिए। यही न्याय है।  उदाहरणतः अपराधी को कारागार में रख कर पाप करने से बचाना भी दया है।  परन्तु निरंतर जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दंड देना भी अन्य मनुष्यों पर दया है, जिसे उस व्यक्ति की प्रताड़ना सहनी पड़ सकती थी। बुरे कर्मों (पापों )को तो ईश्वर भी क्षमा नहीं करते,  क्योकि ऐसा करने से न्याय नष्ट हो जाता है। अतः ईश्वर प्रत्येक प्रणियों को उसके कर्मो के अनुसार फल जरूर देता है।  यही तो न्याय है। ईश्वर की इससे बड़ी दया क्या होगी कि उसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के लिए आवश्यक सभी पदार्थ दान में दे रखे हैं।  

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Friday, July 31, 2015

Relation between Science and religion

प्रकृति-धर्म और विज्ञान का जनक

जब हम प्रकृति की बात करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में आस पास के वातावरण की छवि उभर आती है...पहाड़, झरने, नदियाँ, समुद्र, जीव जन्तु, पक्षी,मानव जीवन...इत्यादि...यहाँ तक कि पूरे ब्रह्माण्ड की कल्पना तक कर लेते हैं हम। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच बहुत गहरा और मजबूत रिश्ता है। और हो भी क्यों न क्यों कि मनुष्य ने जो कुछ भी सीखा है वह प्रकृति से ही तो सीखा है और सीखता चला आ रहा है चाहे वह धार्मिक बातें हो या वैज्ञानिक सिद्धांत। इसका अभिप्राय यह है कि विज्ञान और धर्म दोनों का जनक प्रकृति ही है।

मानव की आंतरिक चेतना का मार्गदर्शन धर्म करता है। आखिर सभी धर्मों से सर्वोपरि जिस मानवता की बात हम करते हैं वो सभी बातें हम किसी न किसी धर्म से ही तो सीखे हैं। वहीँ भौतिक चेतना का मार्गदर्शन विज्ञान करता है। विज्ञान प्रकृति से हमें कुछ ऐसी बातें सिखाता है जो हमारी आस्था का केंद्र बन जाता है और दोनोँ एक दूसरे के पूरक बने हुए है। यहाँ विज्ञान को प्राथमिकता देने से मेरा मत यह नहीं है कि विज्ञान धर्म से ज्यादा श्रेष्ठ है। मनुष्य के जीवन में संतुलन के लिए विज्ञान और धर्म दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है।

जहाँ एक ओर धर्म, विज्ञान और प्रकृति आपस में सम्बंधित हैं वहीँ विज्ञान और धर्म में भी बहुत गहरा सम्बन्ध है। जहाँ एक ओर बिना विज्ञान के कोई धार्मिक काम नहीं हो सकते वहीँ दूसरी ओर विज्ञान के खोजों में लगे वैज्ञानिकों को प्रेरणा धर्म और अध्यात्म से ही मिलती है। अतः दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और हो भी क्यों न क्योंकि दोनों ही प्रकृति से पैदा हुए है। प्रकृति में इन दोनो का वही स्थान है जैसे मनुष्य के दोनों हाथ होते है।

परंतु यहाँ चिंता का विषय यह है कि कुछ अवसरवादियों ने स्थिति का फायदा उठा कर धर्म और विज्ञान के बीच में एक गहरा खाई बना दिया है। जिसमें मानव समाज डूबता नजर आता है। एक तरफ विज्ञान के प्रमाणित सिद्धान्त तो दूसरी तरफ धर्म के नाम पर उत्त्पन्न किया गया अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता।

इस भ्रम की स्थिति में सम्पूर्ण मानव जाति का विकास और कल्याण नहीं हो पा रहा है। और इसका दुष्परिणाम यह है कि मनुष्य इस जंजाल में उलझा रहता है कि विज्ञान सत्य है या धर्म। परंतु सत्य तो यह है कि दोनों सत्य हैं , गलत तो अन्धविश्वास और कुरीतियां हैं। जैसे किसी मनुष्य के दोनों हाथ अलग नहीं किये जा सकते है ठीक उसी प्रकार धर्म और विज्ञान को अलग नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह दोनों प्रकृति के दोनों हाथ है।

जिस प्रकार विज्ञान में प्रत्येक सिद्धांत की प्रयोगात्मक पुष्टि की जाती है और किसी सिद्धान्त की पुष्टि न हो पाने पर उस सिद्धांत को नगण्य मान लिया जाता है ठीक उसी प्रकार धर्म में फैले हुए अन्धविश्वास और कुरीतियों को मिटाना होगा। और इस कार्य में समाज को प्रत्येक वर्ग की आवश्यकता है खासकर युवाओं की। यह आज के युवाओं के लिए एक चुनौती है कि वह लोगों को जागरूक करें और मानव जीवन का बेड़ागर्क होनें से बचायें। हमारे देश में फैली हुई जाति और धर्म की राजनीति से बचायें। जिस दिन मनुष्य विज्ञान और धर्म के बीच की खाई पाट लेगा उसदिन वह खुद विकास के पथ पर अग्रसर हो जायेगा और चलता ही चला जायेगा!!!

....रवि प्रकाश गुप्ता

Friday, July 3, 2015

Migration of people from villages

जब मैं शहर में रोजगार के लिए भटक रहे लोगों की भीड़ को देखता हूँ तो मुझे लगता है कि ये हमारे देश के सिस्टम का दोष है कि वह जनसँख्या के अनुपात में लोगो को रोजगार के अवसर नहीं उपलब्ध करा पा रहा है। मुझे मजदूर वर्ग से लेकर उच्च शिक्षित युवा वर्ग तक के लोग रोजगार के लिए भटकते हुए दिखाई देतें हैं।
ये तो हुआ शहर का परिदृश्य, अब मैं आपको ग्रामीण परिदृश्य दिखाना चाहूँगा।
अभी मैं अपने गाँव गया और वहाँ चल रहे कृषि कार्य को देखा और उसे समझा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
आज कल ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि कार्य बहुत जोरों से चल रहा है। खरीफ की बुवाई चल रही हैं। मैंने यहाँ देखा की धान के रोपाई के लिए श्रमिक ढूढ़ने पर नहीं मिल रहे। और कृषि के लिए ही नहीं बल्कि अगर आपको किसी और कार्य के लिए भी श्रमिक चाहिए तो भी जल्दी नहीं मिलेंगें।
अब यदि हम गौर करें तो हमें कितना विरोधाभास देखने को मिलेगा कि एक तरफ लोग रोजगार पाने के लिए लाइन लगाये खड़े है और दूसरी तरफ रोजगार के लिए लोग नहीं मिल रहे है।
अब मुझे समझ में नहीं आता है कि इसमें किसका दोष है, लोगों का या सिस्टम का?
मैंने शिक्षित लोगों को मनरेगा से भी कम वेतन पर, यहाँ तक कि उससे आधे वेतन पर भी काम करते हुए देखा है। एक तरफ कृषि कार्य को करने के लिए लोग नहीं हैं और दूसरी तरफ लोग इतने कम वेतन पर भी कार्य करने को तैयार हैं।
अभी हाल में ही WHO ने एक रिपोर्ट जारी किया है कि पूरे विश्व में सबसे ज्यादा तनावग्रस्त लोग भारत में रहते हैं, करीब 25 प्रतिशत लोग। मतलब प्रत्येक 4 लोगों में 1 लोग तनावग्रस्त हैं। मुझे इसका मुख्य कारण बेरोजगारी ही प्रतीत होता है।
मुझे समझ में नहीं आता है कि लोग इतनी छोटी मोटी नौकरी करके अपने आप को कैसे संतुष्ट कर लेते हैं, जबकि उनके पास कृषि या अन्य रोजगार को चुनने का विकल्प होता है। हमारे देश के नीति निर्माताओं को किसी ऐसी योजना का निर्माण करना चाहिए जिससे कृषि और लघु उद्दोग से विमुख हो रहे लोगों को पटरी पर लाया जा सके। और गाँव से हो रहे पलायन को रोका जा सके।

जय हिन्द!

आपका
रवि प्रकाश गुप्ता

Wednesday, June 17, 2015

English in India

किसी भी प्रतियोगी परीक्षा का यदि पाठ्यक्रम देखा जाये तो सब जगह अंग्रेजी भाषा सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता हैं और सफल होने के लिए निर्णायक भी साबित होता है।
मुझे समझ में नहीं आता है कि इसे हम अपनी भाषा के महत्व को खो देने का दुर्भाग्य समझे या विदेशी भाषा के अध्ययन का सौभाग्य!

कृपया अपने विचार व्यक्त करें।

Wednesday, April 29, 2015

Our Old technology

#NepalEarthquake #Uttarakhand #OldTechnology vs #MacaulaySystem

नेपाल में आये त्रासदी से मैं काफी आहत हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि इस त्रासदी में मारे गए सभी लोगों के आत्मा को भगवान शांति दें। और वहां जल्द ही जन जीवन सामान्य हो।
परंतु सोचने की बात यह है कि चाहे उत्तराखंड का बाढ़ हो या नेपाल का भूकम्प, दोनों त्रासदी में भगवान भोलेनाथ के मंदिर को कुछ न हुआ। कुछ लोग इसे भगवान भोलेनाथ की कृपा कहेंगें और मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं, अंततः कुछ तो बचा इस भीषण त्रासदी में।
परन्तु एक सिविल इंजीनिअर के तौर पर मैं यह कहना चाहूँगा कि ये सभी उदाहरण भारतवर्ष के तकनीकी शिक्षा और शिल्पकला के अदभुत उदहारण हैं। हमें प्राचीन भारतवर्ष के ज्ञान विज्ञान पर गर्व होना चाहिए। अगर हम गुलाम न हुए होते तो आज हम विश्व में प्रथम स्थान पर होते।
अतः हमें अपने भारतवर्ष के शिक्षा प्रणाली पर ध्यान देना चाहिए। वर्तमान शिक्षा प्रणाली को बदल कर हमें अपने शिक्षा प्रणाली से अध्ययन करने की आवश्यकता है। हमारे वेदों तथा ग्रंथो में अपार ज्ञान का भण्डार है, बस आवश्यकता है उस ज्ञान को पुनर्जीवित करने की।
हमारे इतिहास में अनेकों उदहारण हैं, जिससे हम कह सकते है कि अगर हम मैकाले शिक्षा प्रणाली से आज़ाद होकर अपने शिक्षा प्रणाली से अध्ययन करना प्रारम्भ करे तो फिर से हम बहुत तेजी से विश्व गुरु बन सकते है चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो, कला, विज्ञान, अध्यात्म आदि।
बस जरुरत इस बात की है कि हमें कुछ कुरीतियों और अंधविश्वासों को मिटा कर अपनी प्राचीन प्रणाली को लागू करना होगा।

जय हिन्द!!!

रवि प्रकाश गुप्ता